शुक्रवार, 5 जून 2015

लक्ष्मण झूला

1- यमुनोत्री-गंगोत्री यात्रा भाग- 1 ( लक्ष्मण झूला )

मेरे सभी साथियों और पाठकों को मेरा प्रणाम -------- !!! आप लोगों ने मेरी पिछली पोस्ट मुनस्यारी का यात्रा अवश्य पढ़ा होगा। उत्तराखण्ड राज्य में कुमाऊँ मण्डल के पिथौरागढ़ जिले के सीमान्त क्षेत्र में अवस्थित मुनस्यारी पर्वतीय स्थल की दुर्गम यात्रा जून 2015 की भीषण उमस भरी गर्मी से कुछ दिनों तक निजात पाने तथा पंचाचूली पर्वतों की चोटियों के विहंगम दृश्यों को नजदीक से देखने के लिए अचानक ही प्रस्तावित की गयी थी। मुनस्यारी यात्रा के एक साल बाद फिर से जून 2015 में उत्तराखण्ड राज्य में स्थित यमुना नदी के उद्गम स्थान यमुनोत्री धाम तथा गंगा नदी के उद्गम स्थान गंगोत्री धाम में जाकर यमुना माँ तथा गंगा माँ के पवित्र मन्दिरों में दर्शन करने की इच्छा मन में जाग्रत हुयी। उक्त यात्राजून 2015 को शुरू की गयी जिसके यात्रा संस्मरण को अपने हिन्दी ब्लॉग मुसाफिरनामा के माध्यम से आपके सम्मुख इस उम्मीद के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ कि आपको यह लेख अवश्य पसन्द आयेगा------------!  
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अब यात्रा की ओर चला जाये -------------!!!  
मई का माह शुरू हो गया था गर्मी भी अपना प्रचण्ड रूप दिखाने के लिए मचलने लगी थी। इधर मुझे भी किसी पहाड़ी क्षेत्र पर गए हुए लगभग एक वर्ष का समय हो गया था।  मई माह में हिन्दी पञ्चांग के अनुसार बैसाख का महीना चल रहा होता है। बैसाख माह की अक्षय तृतीया से भारत वर्ष की देवभूमि कहे जाने वाले नवोदित पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड में स्थित चार धामों यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ में विराजमान देवी देवताओं की डोली विधि-विधान से पूजा अर्चना कर उनके शीतकालीन निवास स्थान से लाकर ग्रीष्मकालीन निवास स्थान यमुनोत्री धाम, गंगोत्री धाम, केदारनाथ धाम तथा बद्रीनाथ धाम में स्थित कर मंदिरों के कपाट दर्शन, पूजा-पाठ के लिए खोल दिए जाते है, जिसकी सूचनायें मुझको समाचार पत्रों तथा न्यूज चैनलों के माध्यम से बार-बार मिल रही थीं।  वर्ष 2006 में भी मैं यमुनोत्री तथा गंगोत्री धाम की यात्रा  चूका था, परन्तु इस बार यमुनोत्री,गंगोत्री, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ में वर्ष 2013 में आई प्राकृतिक आपदा के कारण क्षतिग्रस्त हुयी दुर्गम सड़कों के सही ढंग से पुनर्निर्माण न होने  सूचनाओं के कारण मन सशंकित था कि कहीं क्षतिग्रस्त सडकों के कारण किसी कठिनाई का सामना न करना पड़े। मन में उठ रहे इन्ही विचारों के बीच कई इष्ट मित्रों से साथ चलने के लिए कहा सभी ने मना कर दिया, जिस कारण धीरे- धीरे मई माह व्यतीत हो गया। चूँकि माँ यमुनोत्री तथा गंगोत्री के दर्शनों की इच्छा बलवती होती जा रही थी इसीलिए  शुरू ही एक बार फिर से किसी को साथ ले जाने का भगीरथ प्रयास किया गया, जिसमें साथ के सहकर्मी श्री भुवनेश पाण्डेय अपने सुपुत्र ऋषिकुमार के साथ चलने के लिए तैयार हो गए, इधर मैंने भी अपने मामा जी के सुपुत्र महेश को साथ में चलने लिए तैयार कर लिया।  अब बस अपनी कार को चलाने के लिए ड्राइवर की जरुरत थी। चार-पांच ड्राइवरों से सम्पर्क किया गया, परन्तु कोई भी पहाड़ी रास्तों पर चलने के लिए तैयार नहीं हुआ इसी बीच याद आया कि हमारी कार को सही करने वाले गैराज के मालिक कमल ने कई बार पहाड़ों पर चलने के लिए कहा था। जब कमल से सम्पर्क किया गया तो उसने 5 जून को चलने के लिए हामी भर दी। कमल एक अच्छे मिस्त्री के साथ कुशल ड्राइवर भी है। उधर महेश ने भी बरेली में मिलने को कहा

जून के प्रथम सप्ताह के अन्तिम दिनों में 5 तारीख भी आ गयी और फ़र्रूख़ाबाद से हम चार लोग पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार शुक्रवार को दोपहर बाद तीन बजे फर्रुखाबाद से पहले पड़ाव ऋषिकेश के लिए रवाना हो गए। लगभग 100 किमी चलने के बाद फरीदपुर से पहले कार के अगले पहिये के पास लगे सस्पेंशन का क्लिप टूटी हुई सड़क के गड्ढों के कारण टूट गया, जिसको सही कराने के लिए फरीदपुर के कई गैराजों में दिखाया परन्तु सभी ने मना कर दिया और कहा कि यह तो बरेली में ही सही हो सकेगा।  धीरे-धीरे किसी तरह बरेली सैटेलाइट बस स्टॉप पहुँच कर महेश को साथ लिया और फिर गैराज की ओर गाड़ी ले गए। वहाँ कार को सही होते-होते रात के 9.00 बज गए  कार सही होते ही फिर से सफर शुरू हो गया। रात के 10.30 बज रहे थे इसलिए भूख भी जोरों से लग आई थी मुरादाबाद से पहले सड़क के किनारे स्थित एक अच्छे से ढाबे पर गाड़ी रोकी और खाना खाया। खाना खाकर फिर से ऋषिकेश की तरफ चल दिए। रात में छोटे वाहन मोटरसाइकिल इत्यादि न चलने के कारण तेजी से हमारी कार ऋषिकेश की ओर बढ़ी चली जा रही थी। रास्ते में पड़े कांठ, धामपुर, नगीना, नजीबाबाद और हरिद्धार होते हुए सुबह के 3.00 बजे हम लोग ऋषिकेश पहुँचे। ऋषिकेश में लक्ष्मण झूला के पास पहले से ही बुक कराये गए काली कमली पंचायत क्षेत्र की होटलनुमा धर्मशाला में पहुँच कर कार को धर्मशाला के नीचे ही पार्क कर दिया और सोने के लिए अपने-अपने कमरों में चले गए

6 जून की सुबह 6.00 बजे जब आँख खुली तो गंगा जी की धारा की कल-कल करती हुयी मधुर संगीतमय आवाज सुनाई पड़ी आवाज को सुन कर  कमरे बाहर निकले तो ऋषिकेश की शान्त और सुहानी सुबह हमारा इन्तजार करती मिली। होटल की बॉलकनी से सामने दिख रही हरी-भरी शिवालिक पहाड़ों की चोटियों की तलहटी में गंगा जी काफी चौड़ाई में अपने पूरे वेग के साथ बह रहीं थीं। हरे-भरे शिवालिक पहाड़ों की छाया के कारण गंगा जी के पानी में हरा रंग घुला होने का अहसास हो रहा था। अपने उदगम स्थान से निकलने के बाद पहली बार  गंगा जी को चौड़ा पाट ऋषिकेश में ही मिलता है। होटल की नीचे सड़क पर से श्रद्धालू गंगा स्नान के लिए गंगा जी की दूसरी तरफ जाने के लिए लक्ष्मण झूला की ओर जा रहे थे। कुछ देर तक मैं धर्मशाला की बॉलकनी में खड़ा होकर उस अलौकिक, मनोहारी प्राकृतिक दृश्य का मंत्रमुग्ध होकर रसपान करता रहा। 10- 15 मिनट के बाद फिर अपने कमरे में आकर दैनिक कार्यों से निवृत्त हुआ और कपड़े पहन कर लक्ष्मण झूला पर से निकल कर गंगा जी के किनारे-किनारे टहलने का प्रोग्राम बनाया। मेरे साथ टहलने के लिए महेश, पाण्डेय जी के सुपुत्र और ड्राइवर कमल भी चल दिए। लक्ष्मण झूला पर से पहाड़ों से पहली बार मैदानों में आती हुयी गंगा जी का अविस्मरणीय विहंगम दृश्य नजर आया। 

लक्ष्मण झूला से दिखता गंगा जी का विहंगम दृश्य 
बहुमंजिला मन्दिर साथ में बहती गंगा जी 


लक्ष्मण झूला पर महेश 

लक्ष्मण झूला लोहे की रस्सियों पर बना हुआ पुल है जिसकी लम्बाई 450 फुट है। लक्ष्मण झूला के बीच पर पहुँचने पर पुल हिलने का अहसास हो रहा था। पुल क्रास करके हम लोग बायीं ओर गंगा जी के किनारे-किनारे बनी सड़क पर टहलने के लिए चल दिए। कुछ दूर चलने के पश्चात यह सड़क दुगड्डा की ओर जाने वाली सड़क से मिल जाती है और इसी सड़क पर आगे चलने पर एक सड़क नीलकण्ठ महादेव के लिए मुड़ जाती है। हम लोग लगभग दो किमी चल कर बायीं ओर किनारे बह रही पतित पावनी गंगा जी के तट की ओर उतर गए, नरम रेत और छोटे-बड़े पत्थरों पर से होते हुए गंगा जी की निर्मल  धारा के नजदीक गए और अठखेलियां करती हुयी लहरों में पैर डाल कर बैठ गए। गंगा जी के ठण्डे पानी से मिश्रित शीतल हवा के झोंके तन-मन को असीम आनन्द प्राप्त करा रहे थे तथा हृदय में रामत्व का उदय भी करा रहे थे। लगभग आधा घण्टा यहाँ  रुकने के बाद हम लोग अपनी धर्मशाला में चले आये। मैंने तो अपने कमरे में ही स्नान किया परन्तु पाण्डेय जी आदि साथी गणों ने गंगा स्नान करने के लिए धर्मशाला के सामने से बने रास्ते से नीचे चले गए। स्नानोपरांत नाश्ता करने धर्मशाला के पीछे से ऊपर बनी चौड़ी सी पार्किंग में आये। पार्किंग स्थल के चारों तरफ बहुत से खाने के होटल एवं रेस्तरां बने हुए थे तथा कई चार पहिया ठिलिया पर चाय, बिस्किट वाले चाय बेंच रहे थे। एक चाय वाले के पास छोले-कुल्छे भी बन रहे थे। सब लोगों ने चाय के छोले-कुल्छे का जम कर नाश्ता किया।  

गंगा जी किनारे राजपूत जी 

गंगा जी किनारे राजपूत जी 
पाण्डेय जी और छोले-कुल्छे 

शिवम टी स्टॉल

नाश्ता करते-करते सुबह के लगभग 9. 00 बज चुके थे। चूँकि हम लोगों का अगला पड़ाव यमुनोत्री धाम था, जो ऋषिकेश से 215 किमी दूरी पर था।इसलिए जल्दी से धर्मशाला पहुँच कर कमरों में बिखरा  सामान समेट कर बैगों में रखा और अपनी कार देहरादून-मंसूरी-चकराता मार्ग पर दौड़ा दी 

पौराणिक कथाओं में लक्ष्मण झूला -
किवदन्ती के अनुसार भगवान श्रीराम के अनुज भ्राता श्री लक्ष्मण जी ने गंगा जी के दूसरी तरफ जाने के लिए इसी स्थान पर जूट की रस्सियों से झूला पुल बना कर गंगा जी को पार किया था, लक्ष्मण जी द्वारा गंगा जी पर पुल बनाये जाने के कारण ही इसे लक्ष्मण झूला पुल कहा जाता है लक्ष्मण झूला के पास में कई अन्य दर्शनीय मन्दिर बने हुए है

मेरे मित्रों और साथियों ...... !!  अब हम अपनी यमुनोत्री-गंगोत्री यात्रा भाग - 1 ( लक्ष्मण झूला) के यात्रा वृत्तान्त को यहीं विराम देते है तथा आशा करता हूँ कि आपको यह लेख पसन्द आया होगा। आपके सुझावों तथा सुन्दर से कमेन्ट्स का मुझे बेसब्री से इन्तजार रहेगा। अतः कृपया अपने सुझावों, कमेन्ट्स तथा टिप्पणियाँ मुझे नीचे दिख रहे "टिप्पणी बॉक्स" के माध्यम से अवश्य भेंजे।  यमुनोत्री-गंगोत्री यात्रा भाग- 2 (यमुनोत्री ) का प्रकाशन आपके चिरपरिचित हिन्दी ब्लॉग "मुसाफ़िरनामा"में अतिशीघ्र प्रकाशित होगा।  तब तक के लिए  नमस्कार..........!!! 

अगले भाग में जारी-------
                                                     

इस यात्रा संस्मरण लेखों की सूची  

 1-  यमुनोत्री-गंगोत्री  यात्रा भाग- 1 (लक्ष्मण झूला )
 2-  यमुनोत्री-गंगोत्री यात्रा भाग - 2 (यमुनोत्री धाम दर्शन  )
 3-  यमुनोत्री-गंगोत्री यात्रा भाग - 3 (गंगोत्री धाम दर्शन )
                                                                                

रविवार, 8 जून 2014

मुनस्यारी यात्रा

मेरे सभी साथियों एवं पाठकगणों को मेरा प्रणाम ……! आपने मेरी पिछली पोस्ट "चोपता: एक अधूरी यात्रा" का लेख पढ़ा होगा, उक्त यात्रा जल्दबाजी में मेरे द्वारा की गयी थी। चोपता यात्रा के बाद मुझे फिर से उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ  मण्डल में स्थित पिथौरागढ़ जिले के नये उभरते हुए पर्वतीय पर्यटक स्थल मुनस्यारी जाने का अवसर मिला। चोपता यात्रा की तरह मुनस्यारी की यात्रा भी अचानक हुए घटनाक्रम का ही एक हिस्सा है, इसलिए इस यात्रा लेख में आपको छाया चित्रों की भरपूर कमी महसूस होगी। यह यात्रा मैंने जून, 2014 के प्रथम सप्ताह के समाप्त होने के अगले दिन से शुरू की। जिसके यात्रा संस्मरणों को अपने हिन्दी ब्लॉग "मुसाफिरनामा" के माध्यम से इस उम्मीद के साथ आपके सम्मुख रखने का प्रयास कर रहा हूँ कि आपको यह लेख जरूर पसंद आएगा ....…!

अब यात्रा वृत्तांत पर चलते हैं.......!    
मई के माह में मैदानी इलाकों में गर्मी अपनी चरम सीमा पर होती है। आमतौर पर तापमान 45 डिग्री सेल्सियस पार कर जाता है, गर्म हवाएँ घर से बाहर नहीं निकलने देती हैं, जून के शुरू होते ही मौसम उमस से भरा होने लगता है। ऐसे में पंखे, कूलर की हवा भी शरीर को राहत नही देती है। मात्र ए०सी० ही राहत प्रदान करती है और ऐसे मौसम में ए०सी० भी न चले तो हालत क्या होती है यह तो सभी लोग जानते हैं। फर्रुखाबाद एक "बी" श्रेणी का शहर है जहाँ बिजली की समस्या तो रहती ही है और जब ऐसी गर्मी में एक सप्ताह तक बिजली न मिले तो ऊपर वाला ही मालिक है। 7-8 जून की रात को अचानक शहर के छः ट्रांसफॉर्मर एक साथ फुँक गए। जिस कारण आधे शहर के साथ-साथ मेरे मोहल्ले को सप्लाई देने वाला ट्रांसफॉर्मर भी फुंक गया। बिजली की घोर समस्या से शहरवासी चंद दिनों तक दो-चार होने वाले थे। बिजली विभाग में सम्पर्क किया गया तो बताया गया की नए ट्रांसफॉर्मर आने में एक सप्ताह लगेगा केवल पानी की आपूर्ति के लिए दिन में दो घण्टे बिजली दूसरे फीडर से जोड़ कर दी जाएगी। भयानक उमस भरी गर्मी में किस तरह से सात दिन व्यतीत होंगे इसी सोच विचार में दिन के (11.00) ग्यारह बज गए। मेरे सभी घर वाले तो फर्रुखाबाद से 7 km दूर फतेहगढ़ में रह रहे रिश्तेदार के यहां चले गए। तभी मैंने भी गर्मी से निज़ात पाने के लिए किसी ठण्डे पहाड़ी स्थान पर जाने का निर्णय लिया। हमारे यहाँ से उत्तराखण्ड राज्य के पहाड़ ही सबसे नज़दीक हैं और उत्तराखण्ड में भी नैनीताल 210 km पर स्थित है। नैनीताल मेरा घूमा हुआ है और गर्मियों में यहाँ बहुत भीड़ होती है। मैं एकान्त पसंद इंसान हूँ इसलिए नैनीताल मेरी प्राथमिकता से हट गया। उत्तराखण्ड में पिथौरागढ़ जिले में शहर से 140 km दूरी पर मुनस्यारी के सन्दर्भ में कई बार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा था कि यहाँ का मौसम गर्मियों में बड़ा ही सुहावना रहता है इसलिए मुनस्यारी चलना तय किया तथा अपने ड्राइवर प्रदीप को बुलाकर एक घण्टे के अंदर निकलने को कहा। 

कुछ मुनस्यारी के सन्दर्भ में  
मुनस्यारी पर्यटन के क्षेत्र में काफी तेजी से अपनी जगह बनाता हुआ पिथौरागढ़ जिले का सीमान्त ख़ूबसूरत छोटा सा पर्वतीय पर्यटक स्थल है जो उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ मण्डल में आता है। मुनस्यारी समुद्रतल से 2290 मीटर की ऊँचाई पर बसा है। मुनस्यारी में ब्लॉक तथा तहसील कार्यालय बने हुए हैं। मुनस्यारी में सर्दियों में खूब बर्फवारी होती है जिसके आकर्षण में पर्यटक यहाँ खिचे चले आते हैं और मुनस्यारी की वादियों में बर्फवारी का लुत्फ़ उठाते हैं। सर्दियों में काफी बर्फ गिरने तथा हिमाच्छादित शिखरों से घिरा होने के कारण इसे हिमनगरी का नाम भी दिया गया है। गर्मियों में यहाँ से पंचचूली, त्रिशूल तथा नंदा देवी पर्वतों की बर्फ से ढकी चोटियां दिखाई देती हैं। मुनस्यारी कई ट्रेकिंग रूटों का आधार स्थल भी है। जिसमें मिलम ग्लेशियर, रालम ग्लेशियर एवं खलिया टॉप के ट्रेकिंग रुट प्रसिद्ध हैं। 
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8 जून को दिन के 12.00 बजे मै प्रदीप को लेकर मुनस्यारी के लिए निकल दिया। फर्रुखाबाद से शाहजहाँपुर, पीलीभीत होते हुए रास्ते में रुकते-रुकाते शाम तक टनकपुर (230 km) पहुँचे। टनकपुर में 600 रूपये में एक कमरा लेकर होटल की पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके टनकपुर की बाजार में टहलने निकल गए। टनकपुर शारदा नदी के तट पर बसा हुआ चम्पावत जिले का एक मैदानी क़स्बा है तथा सिद्धपीठ माँ पूर्णागिरि के दरबार में जाने का आधार स्थल है। बाजार में दूर-दराज से आये श्रद्धालुओं की भीड़ थी। कुछ श्रद्धालु जीप टैक्सी में बैठ के माता के दरबार में जाने के लिए टैक्सी चलने का इन्तजार कर रहे थे कुछ दर्शन करके अपने घर जाने की तैयारी में थे। टनकपुर बस सेवा तथा रेल सेवा से जुड़ा है तथा रात में रुकने के लिए कुमाऊँ मण्डल विकास निगम रेस्ट हाउस के साथ ही अन्य बहुत से होटल भी बजट के अंदर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। काफी देर टनकपुर की बाजार में विचरण के बाद अपने होटल आये और खाना अपने कमरे में मंगा कर खाया और सो गए।  

अगले दिन ९ जून को सुबह सो कर उठे नहा कर कमरे में ही आलू के परांठे मंगा कर दही और आचार के साथ खाए और उसके बाद 8.30 बजे रूम चेकआउट कर दिया। टनकपुर में ही गाड़ी का डीजल टैंक फुल करा लिया गया। टनकपुर से अब हमे राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 125 पर चलना था। एन० एच० 125 पर कुछ दूर चलने पर एक सड़क दाहिनी ओर मुड़ जाती है जो सीधे माँ पूर्णागिरि के दरबार में श्रद्धालुओं को ले जाती है। थोड़ा और आगे बढ़ने पर पहाड़ी रास्ता शुरू होते ही कार की रफ़्तार कम हो गयी जिस कारण स्पीडोमीटर की सुई 25 से 45 के बीच में ही घूमने लगी। प्रदीप ने कार को काम ज्यादा रफ़्तार से पर्वतीय रास्तों के तीखे मोड़ों तथा चढ़ती-उतरती सड़क पर सावधानीपूर्वक चलाते हुए चम्पावत शहर के बाहर से निकालते हुए लगभग 11.30 बजे लोहाघाट (88km) पहुँचा दिया। लोहाघाट से रास्ते में खाने-पीने के लिए बिस्किट-चिप्स-भुजिया के पैकटों के साथ-साथ कुछ फल लेकर गाड़ी में रख लिए। लोहाघाट से मुनस्यारी जाने के लिए दो मार्ग हैं। पहला "गंगोलीहाट-कलुआखान-थल-तेजम" होता हुआ तथा दूसरा मार्ग "पिथौरागढ़-डीडीहाट-थल-तेजम" होता हुआ मुनस्यारी जाता है। हमने जानकारी के आभाव में दूसरे मार्ग "पिथौरागढ़-डीडीहाट-थल-तेजम" का चयन किया और पिथौरागढ़ की तरफ चल दिए। यदि पहले मार्ग से जाते तो "पातालभुवनेश्वर मंदिर"  के दर्शन भी हो जाते। लोहाघाट से पिथौरागढ़ 62km की दूरी पर है। पिथौरागढ़ सभी सुख सुविधाओं से सम्पन्न पहाड़ियों के बीच समतल मैदान में बसा पहाड़ी जिला है जिसकी समुद्रतल से ऊँचाई 1500 मीटर है। यहां एक हवाईपट्टी भी बनी हुयी है। पिथौरागढ़ की भीड़ भाड़ से बचने के लिए बाईपास से हवाईपट्टी के किनारे-किनारे होते हुए शहर की आबादी सीमा से बाहर निकल आये। पिथौरागढ़ में भी काफी गर्मी थी। यहां से निकलने के बाद रास्ते में पड़े डीडीहाट(203km), थल, नचानी होते हुए 5.00 के आस-पास तेजम(240km) पहुँच गए। तेजम में आकर कुछ गर्मी कम होने का एहसास होने लगा था।


तेजम का मस्त मौसम 

तेजम से मुनस्यारी 50 km दूर थी। चार-पांच किमी० और चलने के बाद मौसम में बदलाव आना शुरू हो गया चारों ओर की पहाड़ियों पर हरे-भरे पेड़ दिखने शुरू हो गए जिनसे आती ठण्डी-ठण्डी हवा के झोंके खुले शीशों के कारण गाड़ी में प्रवेश कर तन-मन को सुखद अनुभूति दे रहे थे। रास्ते में पड़े क्वीटी, डोर आदि गाँवों को पीछे छोड़ते हुए बिर्थी गाँव पहुँचे। बिर्थी गाँव में ही सड़क के बायीं ओर ऊपर दिख रही पहाड़ी पर कई मीटर ऊँचाई से पानी का एक झरना गिरता हुआ दिखाई दिया। बिर्थी गाँव में होने के कारण यही झरना "बिर्थी फॉल" के नाम से प्रसिद्ध है। शाम होने में ज्यादा वक्त नहीं था इसलिए समय की कमी को ध्यान में रखते हुए "बिर्थी फॉल" के बिल्कुल करीब तक नहीं गए और दूर से ही देख कर मुनस्यारी की ओर चल दिए।


मुनस्यारी जाते समय रास्ते में कुछ देर बिर्थी झरने के पास रुके 

बिर्थी गाँव से 15 km चलने के बाद आये रत्तापानी गाँव के आगे से तो सड़क तीखी चढ़ाईयुक्त हो गयी थी जिस कारण ड्राइवर प्रदीप को बार-बार गाड़ी में प्रथम गेयर का उपयोग करना पड़ रहा था। रास्ते में पड़े कालीमुनि गाँव तक चढ़ाई मिलती रही, जिसका कारण कालीमुनि गाँव का समुद्रतल से 9500 फ़ीट ऊँचाई पर बसा होना था।  कालीमुनि गांव से निकलने के बाद हमारा अन्तिम पड़ाव मुनस्यारी आ गया जहाँ प्रदीप ने गाड़ी की गति को विराम दिया। सुहावने मौसम के बीच मुनस्यारी में दिन का उजाला शाम के पहलू में सिमट कर रात्रि के आगोश में समाने के लिए उत्सुक लग रहा था। हम लोग भी सुबह टनकपुर से 290 km का पहाड़ी सफर तय करके आ रहे थे जिस कारण शरीर में थकावट महसूस हो रही थी इसलिए रात्रि होने से पहले ही रात्रिविश्राम के लिए अपने बजट के अनुरूप होटल भी ढूँढना था। सड़क के पास ही एक होटल में प्रदीप को किराया पता करने भेजा तो वह होटल महंगा लगा। थोड़ा आगे बढ़ने पर कुमाऊँ मण्डल विकास निगम का पर्यटक आवास गृह दिखा उसमें जाकर केयरटेकर से बात की तो उसने 1500 रूपये प्रतिदिन की दर से किराया बताया, जो भी हमे अधिक लगा।

कुमाऊँ मण्डल विकास निगम पर्यटक आवास गृह के ठीक सामने तिराहे पर सड़क के दाहिनी ओर "बिलजू इन" नाम का एक होटल और था, जो बाहर से दिखने में साफ़-सुथरा लग रहा था। होटल के मैनेजर से कमरा दिखाने को कहा तो उसने आखिरी तीसरी मंजिल पर कमरा दिखाया। कमरा साफ़-स्वच्छ बिस्तर के साथ रजाइयों और अटैच बाथरूम में गीजर से युक्त तथा वर्ष भर सुहावने मौसम के कारण पंखा विहीन था। मोलभाव करके 1000 रूपये प्रतिदिन की दर से कमरा ले लिया और गाड़ी को होटल के पीछे बनी पार्किंग में खड़ा करा दिया। होटल में नीचे ही व्यवस्थित रेस्तरां भी बना था, जहाँ भोजन की समुचित व्यवस्था के साथ रूम सर्विस की भी सुविधा थी। होटल के कमरे में अपने बैग रखे तथा बाथरूम में जाकर हाथ-मुँह धोकर फ्रेश हुए। शाम के आठ बजने में 15 मिनट बाकी थे होटल के सामने नीचे की तरफ मुनस्यारी की छोटी सी बाजार दिख रही थी। शॉर्टकट से बाजार जाने के लिए के०एम०वी०एन० गेस्ट हाउस तथा मकानों के बीच से होकर एक ढलानदार पगडण्डी जा रही थी, जिस पर से उतर कर मुनस्यारी की बाजार में टहलने चले गए। बाजार के बीच में चौड़ी सी जगह में एक टैक्सी स्टैण्ड था, जिसके आस-पास बनी दुकानों में मौजूद दुकानदार अपनी-अपनी दुकानें बंद करने की तैयारी में लगे थे। चाय की दुकानों पर कुछ स्थानीय टैक्सी ड्राइवर चाय पीते हुए गपशप कर रहे थे तथा कुछ लोग पूरे दिन की दिनचर्या को एक-दूसरे को बता रहे थे। हम लोगों ने भी वहीँ एक होटल में चाय पी और वापस होटल में आ गए तथा रूम सर्विस को इंटरकॉम फोन से सादा भोजन कमरे में ही उपलब्ध कराने का ऑर्डर दे दिया। आधा घण्टे में होटलकर्मी खाना लेकर आ गया। खाना खाने के कुछ देर बाद अगली सुबह के इन्तजार में हम लोग सो गए।


हिमनगरी मुनस्यारी में सड़क के दायीं तरफ दिखता होटल "बिलजू इन"

10  जून 2014 की सुबह सो कर उठे तो कमरे से बाहर निकलकर आँगननुमा बॉलकनी में आये। मुनस्यारी में रात में बारिश हुयी थी, जिसके कारण पहाड़ों की भीगी हुयी मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू से भरी मदमस्त हवा के झोंको ने हमारा दिल खोल कर स्वागत किया। रात में हुयी वर्षा के कारण मुनस्यारी का तापमान काफी गिर गया था। बादलों के कारण आसमान में धुंध सी फैली हुयी थी, जिसकी वजह से मुनस्यारी के चारों ओर मौजूद पर्वत श्रृंखलाएँ धुंधली-धुंधली नजर आ रहीं थीं। साफ़ मौसम में मुनस्यारी पंचचूली  पर्वतमालाओं की पाँचों चोटियों के मंत्रमुग्ध करने वाले दृश्यों के लिए विख्यात है लेकिन आज धुंध की वजह से बर्फ से लकदक पंचचूली  पर्वतमालाएं नहीं दिखाई पड़ रहीं थी। मुनस्यारी से दिखने वाले अलौकिक, अविस्मरणीय एवं मन को प्रफुल्लित करने वाले जिन दृश्यों के आकर्षण से वशीभूत होकर फर्रुखाबाद से 515 km का सफर तय करके आये उसे पहाड़ों पर छायी धुंध की चादर ने अपने अंदर छिपा रखा था, जिससे मन को निराशा तो अवश्य हुयी परन्तु मैदानी गर्मी से निजात मिलने के कारण संतोष भी मिला। बॉलकनी में कुछ देर खड़े रहने के पश्चात् बाथरूम में जाकर नहाये फिर रेस्तरां में जाकर नाश्ता किया और 10.00 बजे के करीब मुनस्यारी बाजार से होते हुए लगभग 2 km की दूरी पर स्थित माँ नंदा देवी मन्दिर पैदल टहलते हुए निकल गए।

नंदा देवी मन्दिर के रास्ते में खड़े राजपूत जी 



नंदा देवी मंदिर में जाने के लिए प्रवेश द्वार से ही सीढ़ियाँ बनी हुयीं थीं, जिन पर चढ़ते हुए मन्दिर परिसर में पहुँच गए। परिसर के बीच में ही माँ नंदा देवी का छोटा सा मन्दिर बना हुआ दिखा, जिसमें ताला पड़ा था।इसलिए माँ नंदा देवी के बाहर से ही दर्शन किये। मन्दिर परिसर को ही छोटे से उपवन के रूप में मन्दिर कमेटी द्वारा विकसित कर पर्यटकों तथा श्रद्धालुओं के बैठने के लिए तीन-चार सीमेंटिड हट्स बना रखे थे। आस-पास की पहाड़ियों को देखने के लिए मन्दिर परिसर में ही लोहे का एक वॉच टावर बना था।यहां मेरे और प्रदीप के अलावा दक्षिण भारतीय तीन पर्यटक भी विचरण कर रहे थे। हम लोगों ने तीन-चार घण्टे यहाँ व्यतीत किये और वापस अपने होटल की ओर चले आये। मुनस्यारी से 10 km दूर 11500 फ़ीट की ऊँचाई पर खलिया टॉप ट्रेकिंग करके जाया जाता है। खलिया टॉप से पंचचूली, त्रिशूल तथा नंदा देवी पर्वतों की हिमाच्छादित चोटियों के मनोहारी दर्शन होते है। धुंध के साम्राज्य में इन शिखरों को नहीं देखा जा सकता था इसलिए आज खलिया टॉप जाना निरस्त कर दिया। होटल में आकर खाना खाया और बॉलकनी में कुर्सी लाकर रखीं जिन पर बैठ कर धुंध के उस पार के पर्वतों को देखने की चेष्टा करते रहे। मुझे तो हिमनगरी मुनस्यारी में कहीं भी किसी स्थान से हिम नहीं दिखी और न ही कोई पर्यटकों की चहलकदमी दिखी। हमारे होटल में भी दो-तीन दिल्लीवासी परिवार रुके हुए थे, जो अपने इष्टमित्रों को गर्मियों में मुनस्यारी न आने की सलाह दे रहे थे। शाम होते-होते मुनस्यारी के क्षितिज को बादलों ने ढँक लिया। हम लोग एक बार फिर नीचे बाजार में चाय पीने चले गए, चाय पी ही रहे थे तभी बूंदा-बांदी शुरू हो गयी, होटल तक आते-आते तेज बारिश होने लगी, जिस कारण भीग गए। भूख लग नहीं रही थी इसलिए शाम को खाना भी नहीं खाया। जैसे-जैसे रात गहराती चली गयी आसमानी बिजली की कड़कड़ाहट के साथ बारिश का वेग भी बढ़ता चला गया। बाहर घनघोर वर्षा के कारण ठण्ड भी बढ़ गयी थी। हम लोग भी बिस्तर पर रखी रजाईयों को ओढ़ कर सो गए।


माँ नंदा देवी मन्दिर का प्रवेश द्वार 

वॉच टावर से दिखता माँ नंदा देवी का मन्दिर तथा मन्दिर परिसर में विचरण करते राजपूत जी 

वॉच टावर से दिखता धुंध में लिपटा मुनस्यारी क़स्बा 
बिर्थी  फॉल 
11 जून की सुबह सो कर उठे तो कल की तरह आज  भी आसमान में धुंध छायी हुयी थी, जिस कारण खलिया टॉप जाना बेकार ही होता इसलिए यहां से वापस अल्मोड़ा होते हुए चलने का निर्णय लिया। दैनिक दिनचर्या से निवृत्त होकर रेस्तरां में जाकर नाश्ता किया। होटल का अवशेष भुगतान कर 10.00 बजे मुनस्यारी को अलविदा कहा। रास्ते में कालीमुनि, रत्तापानी होते हुए 35km दूर "बिर्थी फॉल" आकर गाड़ी को सड़क के किनारे खड़ा किया और झरने को नजदीक से देखने के लिए पहाड़ी पर चढ़ लिए। बिर्थी झरना 126 मीटर की ऊंचाई से गिरता हुआ बड़ा मनमोहक लग रहा था। कोई भी पर्यटक यहाँ पर नहीं था। चारों तरफ असीम शांति के सुखद वातावरण में पानी के झरते झरने का संगीत सुनाई पड़ रहा था। बिर्थी फॉल से नीचे की तरफ छोटा सा बिर्थी गांव दिखाई पड़ रहा था। यहाँ पर एक घण्टे के आस-पास रुक कर फोटो खींचते रहे फिर वापस आकर गाड़ी में बैठ कर तेजम की ओर चल दिए। 


बिर्थी झरने के लिए जाते समय 

बिर्थी झरने के पास खड़े राजपूत जी 

"बिर्थी फॉल"  के पास से नीचे की ओर दिखता बिर्थी गाँव 

मुनस्यारी से अल्मोड़ा जाने के लिए भी दो मार्ग है पहला मार्ग "तेजम-शामा-कपकोट-बागेश्वर" होता हुआ अल्मोड़ा पहुँचता है तथा दूसरा मार्ग "तेजम-नचानी-थल-कलुआखान-सेरघाट" होते हुए अल्मोड़ा जाता है। यहां पर भी फिर से हम लोगों ने गलत मार्ग  "तेजम-शामा-कपकोट-बागेश्वर" का चयन कर लिया। दूसरे मार्ग से जाते तो रास्ते में "जागेश्वर धाम " के मन्दिर समूहों के दर्शन भी हो जाते। पहले वाले मार्ग पर जाने के लिए तेजम से 2 km पहले दाहिने तरफ जा रहे रास्ते पर मुड़ गए। यह रास्ता 5 km तक भूस्खलन के कारण रामगंगा नदी के पुल तक क्षतिग्रस्त था। पुल के बाद रास्ता सही मिलना शुरू को गया। इस मार्ग पर वाहनों की आवाजाही बहुत कम होती प्रतीत हुयी मात्र तीन पिकअप गाड़ियां ही शामा तक आते हुए मिलीं। इन पहाड़ी रास्तों पर रुकते-रुकाते हुए लहराती बलखाती सुनसान सडकों पर प्रदीप बड़ी कुशलता से गाड़ी को चला रहा था। रात के 8.00 बजे शामा (76km), कपकोट(108 km), बागेश्वर(129km) से होते हुए अल्मोड़ा (206 km) पहुँच गए। अल्मोड़ा में रात्रि विश्राम के लिए कमरा लिया और पास की बाजार में बने होटल में जाकर खाना खाया तथा वापस अपने कमरे में आकर सो गए। अगले दिन 12 जून को जल्दी से नित्यकर्म से निवृत्त होकर अल्मोड़ा से फर्रुखाबाद के लिए चल दिए। अल्मोड़ा से रास्ते में भुवाली, भीमताल, काठगोदाम, बरेली होते हुए शाम को 7.00 बजे फर्रुखाबाद(310km) आकर मुनस्यारी यात्रा का समापन किया।


तेजम के आगे से दिखती घाटी में बहती रामगंगा नदी 

रामगंगा नदी, प्रदीप और अपना वाहन 

रामगंगा नदी और राजपूत जी 

मेरे मित्रों तथा साथियों…! अब हम अपनी "मुनस्यारी यात्रा"  की एक मात्र पोस्ट के यात्रा वृत्तांत को यहीं पूर्ण विराम देते हैं तथा उम्मीद करते हैं आपको यह लेख पसंद आया होगा। आपके सुझावों, कमेन्ट्स का हमें इन्तजार रहेगा। अतः कृपया अपने सुझावों, कमेन्ट्स तथा टिप्पणियां हमें नीचे दिख रहे "टिप्पणी बॉक्स" के माध्यम से अवश्य भेजें। आगे भविष्य में किसी अन्य नए स्थान की यात्रा मेरे द्वारा अतिशीघ्र की जाएगी, जिसका यात्रा वृत्तांत "मुसफ़िरनामा"  में शीघ्र ही आपके समक्ष नए अनुभवों के साथ प्रकाशित किया जायेगा, तब तक के लिए नमस्कार मित्रों…। 

कुछ छायांकन और भी …


वाच टावर पर चढ़ा प्रदीप 

मन्दिर परिसर में प्रदीप 

राजपूत जी 

"बिर्थी फाल" के पास प्रदीप  

तेजम-शामा मार्ग पर खड़ी अपनी कार 

शनिवार, 9 मार्च 2013

दुगलबिट्टा

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आपने पिछले लेख "चोपता: एक अधूरी यात्रा" की अगली पोस्ट "रुद्रप्रयाग" तो अवश्य ही पढ़ी होगी, जिसमें हरिद्वार से १६२ किमी० की दूरी तय करते हुए ०८ मार्च की शाम को रुद्रप्रयाग पहुँच कर होटल में एक कमरा किराये पर लेकर रात्रि विश्राम किया तथा अगले दिन ०९ मार्च को संगम स्नान करने के पश्चात् पुन: चोपता यात्रा जारी रखी, का वर्णन है। उसी क्रम को बढ़ाते हुए अब हम आपको आगे ले चलते हैं..……… 
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०९ मार्च की सुबह १० बजे हम लोग रुद्रप्रयाग से अपनी आगे की यात्रा के लिए चल पड़े । हम लोगो की कार पुन: रुद्रप्रयाग की सुरंग के नीचे से होती हुयी केदारनाथ रोड पैर चल रही थी, संगम स्थल पीछे छूट गया था, जो दूर से देखने पर सुंदर लग रहा था। रास्ता काफी मनोहारी था, चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और  उन पर उगे हरे-भरे दरख़्त मन को लुभा रहे थे। बायीं तरफ काफी नीचे मंदाकनी नदी अपने पूरे वेग के साथ बह रही थी, ऐसे मनभावन दृश्यों को देखते-देखते रुद्रप्रयाग से १९ किमी० दूर अगस्तमुनि तक आ गए । अगस्तमुनि मंदाकनी नदी के तट पर बसा एक  छोटा सा पहाड़ी क़स्बा है, जो समुद्रतल से १००० मीटर की ऊँचाई पर बसा है । यह अगस्त मुनि की तप स्थली रही है । यहाँ पर स्थित अगस्तेश्वर महादेव मन्दिर ऋषि अगस्तमुनि को समर्पित है । अगस्तमुनि से ही बर्फ से लदे पहाड़ों  चोटियां दिखनी शुरू हो जाती हैं । 

अगस्तमुनि से आगे चलने पर भी मंदाकनी नदी हमारे बायीं ओर थी, जो अब सड़क के समानांतर होकर चौड़ी सी घाटी में विपरीत दिशा की ओर प्रवाहित हो रही थी । मंदाकनी नदी के साथ-साथ चलते हुए हम लोग अगस्तमुनि से १७ किमी दूर कुण्ड आ पहुंचे । कुण्ड से एक रास्ता गुप्तकाशी, फाटा, सोनप्रयाग होते हुए गौरीकुण्ड तक जाता है, गौरीकुण्ड से ही १४ किमी० की कठिन पैदल यात्रा करके केदारनाथ धाम जाया जाता है  तथा दूसरा दायी तरफ का रास्ता ऊखीमठ, दुगलबिट्टा, चोपता होता हुआ गोपेश्वर, चमोली चला जाता है । हमे भी अब  "ऊखीमठ-गोपेश्वर" मार्ग पर ही चलना था । 

अत: हमारी कार भी कुण्ड से दायीं तरफ "ऊखीमठ-गोपेश्वर" मार्ग पर मुड़ गयी। कुण्ड से ऊखीमठ ०८ किमी० की दूरी पर था, रास्ता काफी चढ़ाई वाला था,  जो बहुत ही ख़राब था । कहीं-कहीं पर तो सड़क भूस्खलन के कारण बिल्कुल ध्वस्त हो गयी थी, जिसे किसी तरह मिट्टी, पत्थर आदि से बराबर कर बमुश्किल चलने योग्य बनाया गया था । किसी-किसी स्थान पर तो ऐसा लगता था कि अब कार आगे नही जा पायेगी । ड्राइवर प्रदीप काफी सावधानी से उस टूटी-फूटी सड़क से कार निकाल रहा था । हम लोग उस खतरनाक सड़क को पार कर लगभग १२.३० बजे समुद्रतल से १३२५ मीटर ऊपर स्थित ऊखीमठ पहुंच गए । ऊखीमठ में विगत वर्षों में कई बार बादल फटने की हृदयविदारक घटनाये हुई हैं, जिनमें जान-माल का बहुत नुकसान हुआ था। शीतकाल में भगवान केदारनाथ के कपाट बंद हो जाते है तब भगवान केदारनाथ की डोली ऊखीमठ में लायी जाती है और कपाट खुलने तक यहीं भगवान केदारनाथ की पूजा-अर्चना की जाती है । मंदिर के निकट कार को पार्क कर हम लोग मंदिर परिसर में चले गए । वहां उपस्थित पुजारी जी ने हम लोगो को भगवान केदारनाथ जी के शीतकालीन  दर्शन कराये तथा हम सभी लोगो के मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाया । मंदिर कमेटी ने मंदिर के फोटो खींचने से मना करने का दिशा निर्देश देता हुआ बोर्ड लगा रखा था इसलिए मंदिर कमेटी के दिशा निर्देशों का शतप्रतिशत पालन किया गया । कुछ देर मंदिर में रुकने के बाद अपने पूर्व निश्चित गंतव्य चोपता की ओर चल दिए । 

ऊखीमठ-चोपता मार्ग पर ही ऊखीमठ से थोड़ा आगे बढ़ने पर बायीं तरफ की पहाड़ी पर कुछ किमी० पैदल चल कर देवरिया ताल पहुंचा जा सकता है। देवरिया ताल लगभग २४०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित स्वच्छ पानी का छोटा सा ताल है, जिसके साफ़ पानी में चौखम्बा पर्वत शिखर का प्रतिविम्ब दिखाई पड़ता है । 

ऊखीमठ से चोपता लगभग २६ किमी० दूर ऊखीमठ से २३०० मीटर की ऊँचाई पर है, इसका मतलब आगे सिर्फ चढ़ाई-ही-चढ़ाई थी । अभी १५ किमी० के आस-पास ही चले होंगे देवदार के पेड़ो की श्रृंखला शुरू हो गयी थी । हम लोग काफी ऊँचाई पर आ गए थे । चारो तरफ के पहाड़ों की चोटियों पर सिर्फ बर्फ दिख रही थी । कुछ एक-डेढ़ किमी० और चले होंगे तभी सड़क के किनारे के आस-पास जमी हुयी बर्फ भी दिखने लगी । थोड़ा सा और आगे चलने पर रास्ते में ही कुछ गाड़िया खड़ी हुयी थीं, अपनी कार खड़ी कर जब बाहर निकले तो देखा कि उन गाड़ियों के आगे एक फुट से ज्यादा बर्फ रास्ते पर ही पड़ी हुयी थी, जिसके ऊपर से होकर गाड़िया आगे नहीं जा सकतीं थीं । हम ऊखीमठ से लगभग २० किमी० दूरी पर स्थित दुगलबिट्टा के नजदीक आ गए थे । यह से दुगलबिट्टा एक किमी० ही था । अब आगे कैसे जाया जाय यही विचार कर रहे थे साथ ही रुद्रप्रयाग के होटल कर्मियों की बात याद आ रही थी । तभी दुगलबिट्टा की ओर से कुछ लड़के आ गए, जिनकी गाड़ियां पहले से ही यहां खड़ी हुईं थीं । उनसे आगे के रास्ते के सन्दर्भ में पूछा तो उन्होंने कहा कि..…

"आपको गाड़ी यहीं खड़ी करनी पड़ेगी  आगे  तीन फुट से भी  ज्यादा  बर्फ है "

"लेकिन  मुझे  तो चोपता  जाना  है "

"आप यही से आगे नहीं जा पाएंगे सारा रास्ता बंद है , चोपता तो और ऊँचाई  पर है  वहां तो और ज्यादा बर्फ है , हम लोग खुद चोपता जाने के लिए ही आये थे लेकिन नहीं जा पाये ,आगे यहीं दुगलबिट्टा में एक रिसोर्ट है  वहीँ रात में रुके थे । "

और इतना कह कर वह लोग अपनी गाड़ियां लेकर चले गए । 

हम लोगों ने अपनी कार यहीं पर छोड़ दी पैदल आगे की वास्तविकता का पता करने के लिए चल दिए । सड़क पर जगह-जगह बर्फ पड़ी हुयी थी, जो कि आने-जाने वाले के पैरो के नीचे दब कर मजबूत हो चुकी थी, जिस पर बहुत फिसलन थी । उस फिसलनी बर्फ पर से बड़ा संभल कर निकलना पड़ रहा था, जरा सी लापरवाही पर गिरना निश्चित था । आगे दुगलबिट्टा पहुँच कर देखा तो चारों तरफ सड़क से लेकर पहाड़ों की चोटियों तक बर्फ की मोती चादर बिछी हुयी दिखाई दी। आगे दिख रही सड़क पर तीन फुट से ज्यादा बर्फ पड़ी हुयी थी, जहां से गाड़ी तो क्या पैदल भी जाने में परेशानी होती । वहीं से नीचे की ओर घाटी में एक रिसॉर्ट बनी हुयी थी, जहां रात में रुकने की व्यवस्था थी । 

ड्राइवर प्रदीप और भारद्वाज जी बर्फ को देख कर बहुत उत्साहित थे प्रदीप ने इस तरह फैला बर्फ का साम्राज्य पहली बार देखा था, जिस कारण वह कुछ ज्यादा ही उल्लास में था । दुगलबिट्टा में बहुत शांत वातावरण था, चारो तरफ के नज़ारे मन को प्रफुल्लित कर रहे थे । सभी दिशाओं में विद्यमान क्षितिज को छूते पहाड़ो पर देवदार के पेड़ो की बहुलता थी, विराट हिमालय का नयनाभिराम दृश्य बड़ा ही अलौकिक लग रहा था । मैदानी इलाकों के कोलाहल से दूर सुरम्य हिमालय की वादियां मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ रही थीं । हम लोग बर्फ में आगे कुछ दूरी तक गए, बर्फ बहुत भुरभुरी थी, जिस पर पैर रखते ही एक फुट से ज्यादा नीचे चला जाता था। वहां पर घूमते तथा फोटो लेते हुए हमे लगभग दो घण्टे हो गए थे। चूँकि हमारी मंजिल चोपता थी, जो अब बर्फ की वजह और उत्तराखंड प्रशासन की उदासीनता के कारण भविष्य में होने वाली यात्रा का रूप ले चुकी थी। अब दुगलबिट्टा से वापस घर चलने की बारी थी। अत: सभी लोगो ने विचार किया कि घर "कर्णप्रयाग-रानीखेत-नैनीताल मार्ग" से निकल चलते हैं, देर शाम को गैरसैंण में रुक लेंगे। गैरसैंण में के० एम० वी० एन० का गेस्ट हाउस है, जहां मैं पहले भी एक बार बद्रीनाथ से वापसी में रुक चुका था, यात्रा सीजन न होने के कारण खाली ही मिलेगा।  

कुछ बातें फोटो के माध्यम से भी.…


ऊखीमठ से आगे रस्ते में 

  
दुगलबिट्टा से ऊपर चोपता की तरफ जाती हुयी सड़क पर पड़ी हुयी दिखती बर्फ 

सड़क की किनारे पड़ीं बर्फ पर राजपूत जी और ड्राइवर प्रदीप 

प्रदीप 


राजपूत जी 

सड़क पर बर्फ 

सड़क पर बर्फ लिए खड़ा प्रदीप और दायीं तरफ दिखतीं हिमालय की हिम से लदीं चोटियाँ 
नीचे घाटी में स्थित रिसोर्ट 




बर्फ की दरार में लेते भरद्वाज जी 

राजपूत जी और भारद्वाज जी 








कैमरा ज़ूम मोड पर के खींची फोटो 

अब ये मोटरसाइकिल चलाएगा 

दुगलबिट्टा से घर वापसी 
दुगलबिट्टा से हम लोग चार बजे घर की ओर निकल पड़े।  रस्ते में ऊखीमठ, रुद्रप्रयाग, गौचर होते हुए दुगलबिट्टा से ९२ किमी० दूर कर्णप्रयाग  ७ बजे पहुँच पाये, यहां पिण्डारी ग्लेशियर से निकली पिण्डर नदी अलकनंदा नदी में समा जाती है। कर्णप्रयाग से पहले सड़क तीन भागों में विभक्त होती है, बायीं ओर का रास्ता बद्रीनाथ चला जाता है तथा दायीं ओर का रास्ता बस्ती के बाहर से होता हुआ रानीखेत चला जाता है। सामने वाली सड़क बाजार से होती हुयी रानीखेत मार्ग से मिल जाती है। भूख लग रही थी इसलिए खाने के लिए फल, बिस्किट आदि लेना था जिस कारण हम लोग बाजार होते हुए निकले। फल आदि खाने का सामान लेकर आदिबद्री होते हुए लगभग ४६ किमी० दूर गैरसैंण के लिए रवाना हो गए। कर्णप्रयाग से आगे रास्ता ख़राब था, सड़क कई जगह से उखड़ी हुयी थी। रात में उत्तराखंड के पहाड़ी रास्तो पर आवागमन बहुत काम होता, कर्णप्रयाग से गैरसैंण तक मात्र तीन-चार वाहन ही आते हुए मिले। हम लोग भी आराम से चलते हुए रात ९ बजे कुमायूँ मण्डल विकास निगम के गेस्ट हाउस में पहुँच गए। गेस्ट हाउस पहुँच के फ्रेश हुए उसके बाद खाना खाकर सो गए। अगले दिन सुबह दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर, सुबह का नाश्ता गेस्ट हाउस में ही कर द्वाराहाट, रानीखेत, भुवाली, भीमताल, काठगोदाम, हल्द्वानी, बरेली होते हुए रात के १० बजे फर्रुखाबाद आ गए।

कुछ रास्ते के चित्र भी हो जाएं …… 


कर्णप्रयाग से पहले भरद्वाज जी प्रसन्न मुद्रा में 

बायीं ओर प्रवाहित होती अलकनंदा तथा कर्णप्रयाग की ओर जाती हुयी लहराती-बलखाती सड़क 

प्रदीप: एक कुशल पहाड़ी ड्राइवर 

रानीखेत से पहले चीड़ के पेड़ो का नजारा 

किसी गहन सोच में प्रदीप 

श्री भारद्वाज जी रस्ते में पड़े द्वाराहाट कस्बे के बारे में सोचते हुए  

मेरे अभिन्न मित्रों तथा प्रिय पाठकों……! अब हम अपनी "चोपता: एक अधूरी यात्रा" की अन्तिम पोस्ट "दुगलबिट्टा"  के यात्रा वृत्तांत को यहीं पूर्णविराम देते हैं तथा उम्मीद करते हैं आपको यह लेख पसंद आया होगा। आपके सुझावों, कमेन्ट्स का हमें इन्तजार रहेगा। अतः कृपया अपने सुझावों, कमेन्ट्स तथा टिप्पणियां हमें नीचे दर्शित "टिप्पणी बॉक्स" में अवश्य भेजें। आगे भविष्य में किसी अन्य स्थान की यात्रा अवश्य की जाएगी, जिसका यात्रा वृत्तांत "मुसफ़िरनामा"  में शीघ्र ही आपके समक्ष नए अनुभवों, नये आयामों के साथ प्रकाशित किया जायेगा, तब तक के लिए नमस्कार मित्रों…। 
                                                                                                              
इस यात्रा वृत्तांत के लेखों की सूची 
  1. चोपता: एक अधूरी यात्रा 
  2. रुद्रप्रयाग 
  3. दुगलबिट्टा